मध्य-पूर्व में तनाव का अंतहीन दौर

मध्य-पूर्व के इस्लामिक देश महाशक्तियों के आपसी टकराव के उस दलदल में फँस चुके हैं जहाँ से उनका निकलना असंभव साबित हो रहा है. एक तरफ जहाँ यहाँ के अधिकांश देश कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवाद से ग्रसित हैं वहीँ कई देश अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लालच में अमेरिका, रूस और पश्चिमी देशों के आर्थिक और सामरिक हितों के चक्रव्यूह में फंसे हैं और एक-दूसरे के दुश्मन बन बैठे हैं.



सऊदी अरब में आबकायिक स्थित तेल कंपनी अरामको के संयंत्र पर ड्रोन हमले से एक बार फिर मध्य-पूर्व में तनाव अपने चरम पर पहुँच गया है. सऊदी अरब ने जहाँ इस हमले के लिए यमन को जिम्मेदार ठहराया है वहीँ अमेरिका ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए ईरान पर जुबानी हमला तेज कर दिया है. इस हमले के बाद मध्य-पूर्व में दोनों गुट यानि अमेरिका समर्थित सऊदी अरब और ईरान एक बार फिर आमने-सामने हैं.


हालाँकि ईरान इस हमले में अपनी संलिप्तता से इंकार कर रहा है. वहीँ दूसरी ओर यमन स्थित हूति विद्रोहियों के प्रवक्ता याह्दा सारिया ने स्पष्ट तौर पर इस हमले की जिम्मेदारी ली है. परन्तु दुनिया जानती है कि हूति विद्रोहियों को मदद ईरान देता है और जहाँ तक ड्रोन हमले का सवाल है तो हूति विद्रोही ईरान की तकनीकी मदद के बिना इस तरह का हमला करने में सक्षम नहीं हो सकते थे. यही कारण है कि अमेरिका ने इस हमले के लिए सीधे तौर पर ईरान को दोषी ठहराया है.


अगर मध्य-पूर्व के देशों के आपसी संघर्ष को गहराई से देखा जाय तो इसके पीछे क्षेत्र में आर्थिक प्रभुत्व के साथ-साथ धार्मिक प्रभुत्व की भी बहुत बड़ी भूमिका है. ईरान शिया बहुल देश है तो सऊदी अरब सुन्नी बहुल. दोनों देशों में टकराव का इतिहास भी काफी पुराना है और इसके पीछे की वजह दोनों की अपनी अलग धार्मिक मान्यता रही है. दोनों देशों में संघर्ष की ज्वाला और भी तेजी से तब भड़की जब अमेरिका ने इस क्षेत्र में दखलंदाजी देना शुरू कर दिया. ईरान-इराक़ युद्ध से पूर्व ही अमेरिका ने खाड़ी के देशों में अपना प्रभुत्व जमाना शुरू कर दिया थे. यह दौर शीत युद्ध का था. दोनों महाशक्ति अमेरिका और सोवियत संघ खाड़ी में अपना गुट बना चुके थे. ईरान सोवियत संघ गुट का सदाबहार सदस्य हमेशा से रहा है. परन्तु सऊदी अरब जैसे मध्य-पूर्व के अमीर देश अमेरिकी गुट के सदस्य बन गए. इसका एकमात्र कारण क्षेत्र में शिया समुदाय के प्रभुत्व को रोकना था. अमेरिकी गुट में शामिल अधिकांश देश जैसे सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, क़तर आदि देश सुन्नी बहुल हैं.


हालाँकि सामरिक और आर्थिक हितों की आड़ में दोनों महाशक्तियों ने मध्य-पूर्व में अपने संबधों में समय-समय पर थोड़े बहुत बदलाव भी किए हैं. जैसे कि ईरान से नजदीकी होने के वाबजूद रूस ने सऊदी अरब से अपने संबंधों को मजबूत किया है. इस परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह दोनों देशों के द्विपक्षीय आर्थिक हित हैं और इसके पीछे तेल के व्यापार का बहुत बड़ा योगदान है.


बहरहाल मध्य-पूर्व के जो हालात हैं वह न केवल खतरनाक मोड़ लेता जा रहा है बल्कि यह अंतहीन तनाव के दौड़ में भी पहुँचता दिख रहा है. क्षेत्र में धार्मिक और आर्थिक प्रभुत्व के लिए बने गठबंधन के सभी सदस्य देश दो गुटों में स्पष्ट तौर पर कमर कसते दिख रहे हैं. दोनों गुटों का नेतृत्व भले ही ईरान और सऊदी अरब कर रहे हैं परन्तु इसमें दोनों महाशक्ति अमेरिका और रूस भी अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल हैं और तनाव को कम करने की वजाय उसे बढ़ाने और दोनों गुटों को उकसाने जैसा कृत्य कर रहे हैं.


असल में खाड़ी के देशों में पूरा खेल खनिज तेल के व्यापार को लेकर हो रहा है. संघर्ष में शामिल दोनों गुटों के मुखिया ईरान और सऊदी अरब तेल के बड़े निर्यातकों में अहम् स्थान रखते हैं. दोनों की कोशिश क्षेत्र में तेल के व्यापार पर प्रभुत्व बनाने की है. सऊदी अरब का यमन में दखलंदाजी के पीछे की बड़ी वजह वहां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तेल और गैस का भंडार है. अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की यमन में रूचि की वजह भी यही है. परन्तु यमन के शिया विद्रोही हूति मूवमेंट सऊदी अरब की इच्छाओं का रोड़ा बना हुआ है.


यमन में हूति विद्रोहियों के सफाए के लिए वर्ष 2015 में सऊदी अरब के नेतृत्व में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और संयुक्त अरब अमीरात सहित आठ देशों ने सैन्य गठबंधन बनाया था. परन्तु इस गठबंधन के संयुक्त अभियान के वाबजूद यमन के हूति विद्रोही नतमस्तक नहीं हुए. उल्टे हूति विद्रोहियों ने सऊदी अरब पर दोगुनी ताकत से घातक हमले करने शुरू कर दिए. कहा जाता है हूति विद्रोहियों और सऊदी सैन्य गठबंधन के संघर्ष में 2016 के बाद यमन में 10,000 से अधिक जानें गई हैं. यह तो अधिकारिक आंकड़ा है परन्तु गैर-अधिकारिक आंकड़ों को देखा जाए तो यह 70,000 से भी अधिक बताया जा रहा है.


इस विनाशकारी संघर्ष के बाद भी सऊदी गठबंधन यमन के हूति विद्रोहियों को दबाने में नाकामयाब साबित हो रहा है. परिणामस्वरूप खाड़ी के संयुक्त अरब अमीरात जैसे सऊदी अरब के सहयोगी अब इस संघर्ष से बचने की कोशिश करने लगे हैं.


लेकिन सहयोगियों की अनिच्छा के वाबजूद सऊदी अरब और अमेरिका इस संघर्ष में पीछे नहीं हटना चाहते हैं. सऊदी अरब जहाँ आर्थिक हितों के लिए यमन पर लंबे समय से दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है वहीँ अमेरिका के लिए यमन आर्थिक के साथ-साथ सामरिक दृष्टिकोण से भी काफी महत्व रखता है. सोमालिया में सैन्य ठिकाने बनाने में नाकामयाब रहा अमेरिका यमन पर नजरें गड़ाए बैठा है. अमेरिका के लिए इसके पीछे मजबूत वजहें हैं. लाल सागर और हिन्द महासागर को अदन की खाड़ी से जोड़ने वाले जलडमरूमध्य पर यमन स्थित है. व्यापारिक दृष्टिकोण से यह क्षेत्र अतिमहत्वपूर्ण है. यहाँ से दुनिया का दो तिहाई तेल गुजरता है. एशिया से यूरोप और अमेरिका जाने वाले जहाज भी इसी समुद्री रास्ते से जाते हैं. व्यापार के लिहाज से यह सबसे व्यस्त समुद्री रूट है. ऐसे में कौन नहीं चाहेगा कि उसका यहाँ दबदबा हो. यमन में दिलचस्पी केवल सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका और उसके सहयोगियों को ही नहीं बल्कि चीन और रूस की भी है.


यमन में तो सभी अपने-अपने खेल खेल रहे हैं परन्तु यमन की मानवीय त्रासदी से सभी बेखबर हैं. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार यमन की करीब 80 फीसदी आबादी यानि 2 करोड़ से ज्यादा लोगों त्रासदी के शिकार हैं. इनमें से आधे लोग ऐसे हैं जिनके पास न तो खाने के लिए कुछ है और न ही पीने के लिए पानी है. 33 लाख से अधिक लोग दूसरे जगहों पर शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं. देश की स्वास्थ्य सेवा बदहाली में है. पांच साल से कम उम्र के चार लाख से ज्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार हैं. इतना बुरा हाल होने के बावजूद यमन की इस मानवीय त्रासदी का सुध लेने वाला कोई नहीं है.


इतिहास के पन्नों में अगर झाँका जाए तो स्पष्ट होता है कि यमन के लोग हमेशा से अपने देश पर कब्ज़ा करने की कोशिश करने वालों को खदेड़ते रहे हैं. यही कारण है कि कुछ हफ़्तों में यमन पर कब्ज़ा करने का दावा करने वाले सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अब सकते में हैं. इस लड़ाई में अबतक सऊदी अरब ने कुछ हासिल तो किया नहीं उल्टे अपने धन, सैन्य साज्जो-समान और छवि को नुकसान पहुँचाया है. संघर्ष की वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए ही संयुक्त अरब अमीरात ने संघर्ष से अपने को अलग कर लिया है.


हालात के इतने ख़राब हो जाने के वाबजूद संघर्ष विराम की कोई भी कोशिश दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही है. ऊपर से हूति विद्रोहियों ने सऊदी के तेल उत्पादन संयंत्रों पर ड्रोन से हमला कर आग को और अधिक भड़का दिया है. इस हमले ने अमेरिका को ईरान पर दबाव बनाने का एक और मौका दे दिया है. अगर मध्य-पूर्व का यह तनाव और भी अधिक बढ़ता है तो सऊदी अरब और यमन से होता हुआ टकराव ईरान और अमेरिका के बीच सैन्य टकराव में तब्दील हो सकता है. और अगर ऐसा होता है तो पहले से ही तेल संकट से जूझती दुनिया में हाहाकार मचने से कोई नहीं रोक सकता.


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