'एक देश, एक चुनाव' से आखिर डर कौन रहा है?

नरेन्द्र मोदी की सरकार ने भारी बहुमत से सत्ता में वापसी के साथ ही सबसे बड़ा कदम चुनाव सुधार की दिशा में उठाया है. संसद का पहला सत्र शुरू होने के पूर्व 'एक देश, एक चुनाव' पर गहन विचार-विमर्श के लिए सर्वदलीय बैठक कर नरेन्द्र मोदी ने इस मुद्दे पर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है. दूसरी तरफ इस बैठक से कई महत्वपूर्ण राजनेताओं का अनुपस्थित रहना साबित करता है कि वे चुनाव की इस प्रणाली के प्रति या तो गंभीर नहीं हैं या फिर वे सभी इस प्रणाली के लागू होने पर अपनी राजनीतिक वजूद कायम रहने के प्रति सशंकित हैं. केवल राजनेता ही नहीं, देश में सक्रिय ऐसे कई गुट हैं जो अपने स्वार्थ के कारण 'एक देश, एक चुनाव' की चर्चा भर से डरे हुए हैं और अभी से 'लोकतंत्र खतरे में है' का नारा बुलंद करने में लग गए हैं.



'एक देश, एक चुनाव' की परिकल्पना भारत में कोई नई बात नहीं है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर लंबे समय से देश में बहस चल रही है. परन्तु इस बहस की गंभीरता का अहसास देश को तब हुआ जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पिछले कार्यकाल में इस मुद्दे को देश के विकास से जोड़ते हुए इसपर पहल शुरू की और इससे सम्बंधित संस्थाओं से इसपर टिपण्णी देने को कहा. परिणामतः इस मामले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग बातचीत कर चुके हैं और अपने विचार भी सरकार के समक्ष पेश कर चुके हैं.


उपरोक्त सभी संस्थाओं से सकारात्मक संकेत मिलने के बाद दोबारा सत्तासीन नरेन्द्र मोदी सरकार ने अब इस मुद्दे पर अपने कदम तेजी से आगे बढ़ा दिए हैं. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कल हुई सर्वदलीय बैठक इस दिशा में उठाया गया पहला कदम था. यह अलग बात है कि इस बैठक से कई जाने-माने राजनीतिक चेहरे दूर रहे परन्तु देश के 21 राजनीतिक दलों का मीटिंग में शिरकत करना सरकार की पहल की कामयाबी मानी जानी चाहिए. हाँ यह भी सत्य है कि मीटिंग में शामिल कई दलों ने इस मुद्दे पर असहमति भी जताई है. परन्तु लोकतंत्र में ऐसा होना कोई असामान्य घटना नहीं है. अंततः मीटिंग में उपस्थित सभी नेताओं और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के विचार सुनने के बाद केंद्र सरकार ने इस विषय पर विस्तृत रूपरेखा बनाने के लिए एक उच्चस्तरीय कमिटी गठित करने का फैसला किया है.


अब सवाल यह उठता है कि जब 'एक देश, एक चुनाव' सिस्टम लागू होने से देश को कई फायदे होंगे तब इसके विरोध में आवाज़ क्यों उठ रहे हैं और आवाज़ उठाने वाले कौन हैं? पिछले दिनों के दौरान और आजकल मीडिया में जो वक्तव्य और बयान आए हैं और आ रहे हैं और साथ ही कुछ बुद्धिजीवी पत्रकारों द्वारा अपने प्लेटफार्म पर लिखे और बोले जा रहे हैं, उसका विश्लेषण करें तो 'एक देश, एक चुनाव' के विरोधियों को दो भागों में बांटा जा सकता है. एक तो वे राजनीतिक दल और उसके मुखिया हैं जिन्हें लगता है कि अगर इस तरह से चुनाव हुए तो उनका अस्तित्व खत्म हो जाएगा और दूसरा वर्ग वह है जो राजनीतिक अस्थिरता, बार-बार चुनाव, मिलीजुली सरकार आदि की स्थिति में अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं. ऐसे लोगों के लिए 'संविधान खतरे में है' का ढिंढोरा पीटना एक प्रकार से रूटीन बन गया है. ये वही लोग हैं जिन्हें नरेन्द्र मोदी का दोबारा सत्ता में आने से संविधान खतरे में दिख रहा था.


सबसे पहले हम उन राजनीतिक दलों की बात करते हैं जिन्हें 'एक देश, एक चुनाव' से अस्तित्व का खतरा सताने लगा है. ये सभी या तो क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं या फिर छोटे या कम जनाधार वाले दल हैं. इन्हें डर है कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एक साथ होने से क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर के मुद्दे पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो सकते हैं और बड़ी राष्ट्रीय पार्टियाँ लोकसभा के साथ विधानसभा में भी जीत हासिल कर सकती है. हालाँकि ऐसी सोच रखने वाले ज्यादातर वे दल हैं जो उत्तर भारत के राज्यों में धार्मिक और जातिगत आधार पर अपने जनाधार का गुणा-भाग करते हैं.



इसके उलट दक्षिण भारत की राजनीति में जाति और धर्म से अलग क्षेत्रवाद का बोलवाला है. वहां का जनमत लोकसभा और विधानसभा के लिए समान है. जैसे इस वर्ष आन्ध्र प्रदेश में लोकसभा के साथ विधानसभा के भी चुनाव हुए. दोनों में जनमत एक ही पार्टी यानि जगनमोहन रेड्डी की वायएसआर कांग्रेस के साथ रहा. ऐसे में 'एक देश, एक चुनाव' के मुद्दे पर दक्षिण के किसी राजनीतिक पार्टी को आपत्ति नहीं है चाहे वह तेलगुदेशम हो, तेलंगाना की टीआरएस हो या फिर डीएमके या एआईडीएमके.


इसी वर्ष उड़ीसा में भी लोकसभा के साथ विधानसभा के चुनाव हुए. इस चुनाव में राज्य के जागरूक मतदाताओं ने अपने विवेक का बेहतरीन उदहारण प्रस्तुत किया. लोकसभा के लिए जहाँ मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी को बेहतर विकल्प माना वहीँ विधानसभा में नवीन पटनायक पर एक बार फिर से भरोसा जताया. वास्तव में यही लोकतंत्र की खूबसूरती भी है और विशेषता भी. स्पष्ट है, नवीन पटनायक जैसे नेता को अपने जनकल्याण के कार्यों पर भरोसा है न कि जाति और क्षेत्रवाद पर. वे पहले भी 'एक देश, एक चुनाव' के पक्ष में थे और आज भी मजबूती के साथ इसके पक्ष में खड़े हैं.


जाहिर है, 'एक देश, एक चुनाव' से खौफ खानेवाले वे राजनीतिक दल और नेता हैं जिन्हें ना तो विकास से कोई लेना-देना है और न ही जनकल्याण से. उनकी राजनीति केवल और केवल जाति और धर्म के इर्दगिर्द घूमती रही है और आगे भी घूमती रहेगी. हालाँकि अब समय बदल रहा है. जनता जागरूक हो रही है. देश का जनमानस जाति और धर्म से कहीं बहुत आगे विकास की सोच तक पहुँच चुका है. इसी का परिणाम है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में ऐसे दलों को मुंह की खानी पड़ी है. अब जब 'एक देश, एक चुनाव' को देश अपनाता है तो संभवतः ऐसे दलों का अस्तित्व सदैव-सदैव के लिए खत्म हो जाएगा.


अब हम उस वर्ग की बात करते हैं जो राजनीतिक अस्थिरता, बार-बार चुनाव, मिलीजुली सरकार आदि की स्थिति में अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं. ऐसे लोगों को जब लगता है कि उनकी स्वार्थ की आज़ादी को खतरा है तो वे 'संविधान खतरे में है' का ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते हैं या फिर चमचागिरी के तहत मिले 'अवार्ड्स' को लौटाने का प्रपंच करते हैं. इस वर्ग में न केवल देश के तथाकथित बुद्धिजीवी शामिल हैं बल्कि कई प्रिंट और इलोक्ट्रोनिक मीडिया घराने भी हैं. इन सबके लिए चुनाव एक बड़ा सौगात लेकर आता है जिसमें उन्हें धन कमाने का एक बड़ा अवसर प्राप्त होता है. चुनाव की आड़ में इस वर्ग के लोग न केवल धन का संचय करते हैं बल्कि काले धन को सफ़ेद करने का भी खेल खेलते हैं.


वस्तुतः देश में राजनीतिक अस्थिरता इस वर्ग के लोगों के लिए एक वरदान साबित होता है और वे सभी इसे नाना प्रकार से भुनाने की कोशिश करते हैं. इस स्थिति में राजनीतिक दलाली, टेंडर, पट्टे आदि ऐसी अनेक संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं कि शासन में ऊपर से नीचे तक बैठे लोग अधिक से अधिक बटोरने की कोशिश में विकास और जनकल्याण के अपने कर्तव्यों को भी भूल जाते हैं. यूपीए सरकार का 2जी स्कैम, उत्तर प्रदेश में प्रजापति महोदय का खनन का खेल, नॉएडा और ग्रेटर नॉएडा में यादव सिंह जैसे अधिकारियों का हज़ारों करोड़ का खेल जैसे कई उदाहरण हैं जो राजनीतिक अस्थिरता और क्षेत्रीय पार्टियों के विकास विरोधी गतिविधियों के जीते-जागते प्रमाण हैं.


स्वाभाविक है जब केंद्र की वर्तमान सरकार 'एक देश, एक चुनाव' पर कदम बढ़ा रही है तो इस वर्ग के लोगों को अपना अस्तित्व खतरे में नज़र आने लगा है और वे भय से इसे 'संविधान विरोधी' और 'लोकतंत्र विरोधी' करार देने में जुट गए हैं.