क्या हिंदी भाषा के भी अच्छे दिन आएंगे?

आजादी के बाद से लेकर आज तक अपने ही देश में दोयम दर्जे का दंश झेल रहे हिंदी भाषा को वर्तमान मोदी सरकार से उम्मीदें तो जगी हैं परन्तु इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि राजभाषा का दर्जा होने के बावजूद हिंदी को सरकारी कम-काज से लेकर शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र तक में आज भी उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है.



उस वक़्त हम भारतवासियों के मन को कितना सकून मिला जब भारत के प्रधानमंत्री को न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर में हजारों लोगों के बीच हिंदी में संबोधन करते हुए हम सबने देखा और हमने यह भी देखा कि प्रधानमंत्री ने अमेरिका के सरकारी दौरे के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपतियों, चाहे वे बराक ओबामा रहे हों या वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, सभी के साथ द्विपक्षीय बातचीत में हिंदी भाषा को ही प्राथमिकता दी है. ऐसा भी नहीं है कि हमारे प्रधानमंत्री को अंग्रेजी समझनी और बोलनी नहीं आती है. इसके बावजूद उन्होंने अपनी बात को हिंदी में कही और द्विभाषीय के माध्यम से अपनी बात को अपने समकक्ष के पास पहुंचाया. इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक आमसभा की बैठक में भी भारतीय प्रतिनिधि चाहे वे हमारे विदेशमंत्री हों या प्रधानमंत्री, पिछले कई वर्षों से हिंदी में ही संबोधित कर रहे हैं. हिंदी के प्रति भारत की वर्तमान सरकार की निष्ठा और समर्पण का ही परिणाम है कि पिछले कई वर्षों से हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की अधिकारिक भाषा के तौर पर शामिल करने की न केवल आवाज उठ रही है बल्कि इस दिशा में सकारात्मक कदम भी उठाए गए हैं.



वैसे तो हिंदी भाषा के उत्थान के लिए यह सब सकारात्मक सन्देश हैं परन्तु इस भाषा का वास्तविक तौर पर उत्थान तभी संभव होगा जब हम भारत के लोग इस भाषा के प्रति मन में भरी हीन भावना को जड़ से मिटा पाएंगे. हमें यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हिंदी के विकास और विस्तार में हमारी मानसिकता ही सबसे बड़ी बाधा रही है. हम अंग्रेजी गुलामी की मानसिकता में इस कदर जकड़ चुके हैं कि अंग्रेजी को छोड़ने की सोच से ही हम सिहर उठते हैं. हमारा भयभीत होना भी स्वाभाविक है क्योंकि हमारे नीति निर्धारक से लेकर उच्च पद पर बैठे लोग, शिक्षाविद्, उद्योगपति आदि सभी विदेशी भाषा अंग्रेजी के उपासक हैं और उन सभी ने मिलकर हमारे देश और समाज में यह डर पैदा कर रखा है कि अगर हम अंग्रेजी में कमजोर हुए तो न तो हमें नौकरी मिलेगी और न ही समाज में प्रतिष्ठा. इसी डर की वजह से आज तक हम अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम बने हुए हैं.


संख्या में आगे परन्तु उपयोग में कंजूसी  


गौरतलब है कि चीन की भाषा मंदारिन के बाद हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है. हम सभी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि विश्व आर्थिक मंच यानि वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है. अपवादस्वरुप दो-तीन भारतीय राज्यों को छोड़कर हिन्दी सम्पूर्ण भारत में बोली जाती हैं. अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं. फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम और नेपाल में भी लोग बड़े पैमाने पर हिंदी बोलते हैं. 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में 42 करोड़ 20 लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया. भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 6,48,983, मॉरिशस में 6,85,170, दक्षिण अफ्रीका में 8,90,292, यमन में 2,32,760, युगांडा में 1,47,000, सिंगापुर में 5,000, नेपाल में 8 लाख, जर्मनी में 30 हजार हैं. हम सभी को ज्ञात होना चाहिए कि न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा का रुतबा हासिल कर चुका है. भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की 14 आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग एक अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है.


मीडिया और बॉलीवुड का अहम् योगदान


इसे परम सत्य माना जाना चाहिए कि हिंदी भाषा का जितना नुकसान बौद्धिक और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हुआ है उससे कहीं अधिक हिंदी भाषा के उत्थान और विकास में मीडिया और हिंदी फिल्म उद्योग यानि बॉलीवुड ने योगदान दिया है. हिंदी फिल्मों के माध्यम से हिंदी भाषा की पहचान और लोकप्रियता दुनिया भर में फैली है. इसी पहुंच और लोकप्रियता का परिणाम है कि कई हिंदी फ़िल्में कमाई के मामले में अब हॉलीवुड की फिल्मों की बराबरी करने लगे है. इतना ही नहीं, हिंदी दर्शकों की बढ़ती संख्या से उत्साहित अन्य भाषा के विदेशी फिल्म निर्माताओं ने अपनी फिल्मों को डबिंग करके या फिर सबटाइटल्स के साथ भारत में बड़े पैमाने पर रिलीज़ करना शुरू कर दिया है और उन्हें इसका फायदा भी मिल रहा है.



दूसरी तरफ मीडिया या जनसंचार के अन्य साधनों की बात करें तो यहां भी हिंदी अंग्रेजी भाषा से कहीं आगे है. प्रिंट मीडिया के दौर में हिंदी भाषा की पत्र-पत्रिकाएं और अख़बार अंग्रेजी भाषा से मुकाबला नहीं कर पा रहे थे जिसकी सबसे बड़ी वजह हिंदी मीडिया संस्थानों को विज्ञापन का नहीं मिलना था. इसकी वजह वो अंग्रेजी मानसिकता थी जिसका मानना था कि हिंदी पढ़ने वाले लोग न तो सभ्य हैं और न ही उनकी ऐसी हैसियत है कि वो पत्रिकाओं में विज्ञापित किसी वस्तु का उपभोग करने के लिए उन्हें खरीद सकें. परन्तु जब से इलेक्ट्रोनिक मीडिया का जमाना आया है तब से स्थिति बदल गई है. टेलीविज़न और इंटरनेट के इस आधुनिक दौर में हिंदी के समाचार चैनल हों या मनोरंजन के चैनल या फिर ज्ञान-विज्ञान के चैनल, सभी में हिंदी का डंका बज रहा है. दर्शकों की संख्या और लोकप्रियता के हिसाब से हिंदी के चैनल अंग्रेजी के चैनलों से कोसों आगे हैं.


कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल की दुनिया में हिंदी का बढ़ता रुतबा


कम्प्यूटर और इंटरनेट ने पिछले वर्षों मे विश्व मे सूचना क्रांति ला दी है और इसमें कोई शक नहीं कि भविष्य में इसका दायरा और भी अधिक व्यापक होने वाला है. अभी तो हालात ऐसे हैं कि कम्प्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल से दूर रहना लोगों के लिए भारी पड़ रहा है. वस्तुतः विकास के आरम्भिक काल में अंग्रेजी को छोड़कर विश्व की अन्य भाषाओं के कम्प्यूटर पर प्रयोग की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया गया जिससे कारण सामान्य लोगों में यह गलत धारणा फैल गई कि अंग्रेजी के सिवा किसी दूसरी भाषा (लिपि) में कम्प्यूटर काम ही नही कर सकता. किन्तु यूनिकोड के पदार्पण के बाद स्थिति बहुत तेजी से बदल गई है. 19 अगस्त 2009 में गूगल ने कहा था कि हरेक 5 वर्षों में हिन्दी की सामग्री में 94% बढ़ोतरी हो रही है. इसके अलावा गूगल ने कहा कि वह हिन्दी में खोज को और आसान बनाने जा रही है जिससे कोई भी आसानी से इंटरनेट पर कुछ भी हिन्दी में खोज सकेगा.



हिन्दी की इंटरनेट पर अच्छी उपस्थिति है. गूगल जैसे सर्च इंजन हिन्दी को प्राथमिक भारतीय भाषा के रूप में पहचानते हैं. इसके साथ ही अब अन्य भाषा के चित्र में लिखे शब्दों का भी अनुवाद हिन्दी में किया जा सकता है. फरवरी 2018 में एक सर्वेक्षण के हवाले से खबर आयी कि इंटरनेट की दुनिया में हिंदी ने भारतीय उपभोक्ताओं के बीच अंग्रेजी को पछाड़ दिया है. यूथ4वर्क की इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने इस आशा को सही साबित किया है कि जैसे-जैसे इंटरनेट का प्रसार छोटे शहरों की ओर बढ़ेगा, हिंदी और भारतीय भाषाओं की दुनिया का विस्तार होता जाएगा. इस समय हिन्दी में वेबसाईट, ब्लॉग्स, ईमेल, चैट, खोज, एसएमएस तथा अन्य हिंदी सामग्री उपलब्ध हैं. लोगों मे इनके बारे में जानकारी देकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है ताकि अधिकाधिक लोग कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग करते हुए अपना, हिन्दी का और पूरे हिन्दी समाज का विकास करें.



कम्प्यूटर के बाद मोबाइल के आविष्कार ने आम लोगों के जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है. अब मोबाइल कंपनियां ऐसे हैंडसेट बना रही हैं जो हिंदी और भारतीय भाषाओं को सपोर्ट करते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदी जानने वाले कर्मचारियों को वरीयता दे रही हैं. हिंदी विज्ञापन उद्योग की पसंदीदा भाषा बनती जा रही है. गूगल, ट्रांसलेशन, ट्रांस्लिटरेशन, फोनेटिक टूल्स, गूगल असिस्टैन्ट आदि के क्षेत्र में नए-नए रिसर्च कर अपनी सेवाओं को बेहतर कर रहा है. हिंदी और भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का डिजिटलीकरण भी जारी है. फेसबुक और व्हाट्स एप हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ तालमेल बिठा रहे हैं. सोशल मीडिया ने हिंदी में लेखन और पत्रकारिता के नए युग का सूत्रपात किया है और कई जनांदोलनों को जन्म देने और चुनाव जिताने-हराने में उल्लेखनीय और हैरान करने वाली भूमिका निभाई है.


अतः यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होनी चाहिए कि हिंदी भाषा ने अपनी सरलता और मीठेपन से लोगों के दिलों में जगह बनाई है और आगे और भी अधिक तेजी से लोकप्रियता के पायदान पर आगे बढती जाएगी.  वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिन्दी की मांग जिस तेजी से बढ़ी है वैसी किसी और भाषा में नहीं. स्पष्ट है कि हिंदी भाषा को विकास के लिए न तो भारत के अंग्रेजीदां वर्ग के अहसान की जरूरत है और न ही किसी सरकारी वैशाखी की. हाँ, भारत की वर्तमान सरकार ने हिंदी के विकास में जिस सकारात्मक दृष्टिकोण को दिखाया है और अपनाया है वह काबिले तारीफ जरूर है.


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