राजनीतिक मोर्चे पर राहुल गाँधी कहीं हताश तो नहीं हो चुके हैं?

चुनावी वर्ष में कहीं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गाँधी हताशा की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? हाल के दिनों में विदेश दौरे पर गए राहुल गाँधी ने ढेरों ऐसे बयान दिए हैं जिससे उनकी हताशा वाली मनोस्थिति को आसानी से समझा जा सकता है!




राहुल गाँधी ने जर्मनी में बुद्धिजीवियों को संबोधित करते हुए और अपने आपको इस सदी का सबसे महान चिन्तक साबित करते हुए जिस तरह से बेरोजगारी को आतंकवाद से जोड़ा वह केवल हास्यापद ही नहीं, आतंकवाद को बढ़ावा देने और उसका समर्थन करने जैसा माना जाना चाहिए. इतना ही नहीं, राहुल गाँधी ने भीड़ द्वारा हिंसा यानि मॉब लिंचिंग को जीएसटी से जोड़ा और फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरआरएस को मुस्लिम चरमपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड के समान बताकर एक ऐसी विनाशकारी मनोवृति को जाहिर किया है जिसका खामियाजा न केवल कांग्रेस पार्टी को बल्कि भारत को भी भुगतना पड़ सकता है.


कांग्रेस या फिर देश के वामपंथी और अन्य जो अपने आपको सेक्युलर कहते हैं, भले ही बेरोजगारी को आतंकवाद जैसे घिनौने कृत्य से जोड़ना राहुल गाँधी की बौद्धिक परिपक्वता मानते हों परन्तु देश और दुनिया के जो आज हालात हैं उसमें कांग्रेस अध्यक्ष का बयान एक नई और विनाशकारी बहस का रास्ता निकालने के लिए काफी है. भारतीय राजनीति से जुड़े और राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले सभी जानते हैं कि राहुल गाँधी ने अपना यह बयान किस संदर्भ में और किसे लक्ष्य बनाते हुए दिया है. जाहिर है, उनके निशाने पर मोदी सरकार और उसकी नीति है. इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में बेरोजगारी एक बहुत बड़ी समस्या है और इस समस्या का दायरा दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. केवल भारत ही नहीं चीन जैसी विकसित हो रही अर्थव्यवस्था सहित अमेरिका और पश्चिम के विकसित देश में भी बेरोजगारी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है. ऐसे में क्या राहुल गाँधी का बौद्धिक चिंतन दुनियाभर के सभी बेरोजगारों को बंदूक उठाने और हिंसा करने के लिए प्रेरित कर रहा है. अपनी इस खतरनाक और विनाशकारी चिंतन और सोच से राहुल गाँधी क्या केवल नरेन्द्र मोदी को डराना और धमकाना चाहते हैं या फिर देश को हिंसा की आग में झोंकना चाहते हैं. वस्तुतः राहुल गाँधी को अपनी गलती का अहसास होना चाहिए और अपने इस बयान के लिए देश और दुनिया से माफ़ी मांगनी चाहिए और अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो केवल भारत की जनता और यहां की राजनीतिक बिरादरी को ही नहीं बल्कि विश्व बिरादरी को भी उनका सभी मंचों पर बहिष्कार करना चाहिए. बहरहाल, राहुल गाँधी के बेरोजगारी और आतंकवाद वाली थ्योरी से स्पष्ट है कि वे घोर हताशा में हैं और आगामी लोकसभा चुनाव की नैया वे नफरत के सहारे ही खेने की तैयारी में हैं.


राहुल गाँधी के भूकंप वाले बौद्धिक ज्ञान का दूसरा निशाना GST बना है. विदेशी धरती पर अपने ज्ञान का बखान करते हुए वे जरा भी न हिचके और न दायें देखा और न बायें और GST को सीधे भीड़ तंत्र द्वारा की जाने वाली हिंसा से संबंध स्थापित कर बैठे. अपनी इस हास्यापद थ्योरी को स्थापित करने से पहले उन्होंने न तो भारतीय समाज की मनोदशा का अध्यन किया और न ही देश के इतिहास और भूगोल का. इस थ्योरी को स्थापित करने समय शायद वे सन्न 1984 को भूल गए थे जब उन्हीं की पार्टी की सत्ता में होते हुए पूरे देश में भीड़ तंत्र ने किस तरह कत्लेआम मचाया था. यह तो मात्र एक उदाहरण है. इतिहास को अगर खंगाला जाए तो कांग्रेस के शासन काल की सैकड़ों ऐसी घटनाएँ मिलेंगी जो भीड़ तंत्र की करतूतों से भरी-पड़ी हैं. ऐसे में स्पष्ट है कि राहुल गाँधी राजनीतिक मोर्चे पर हताशा की ओर बढ़ रहे हैं और देश के आर्थिक परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले GST की लोकप्रियता और उसे लागू करने वाली मोदी सरकार की लोकप्रियता से घबरा गए हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो वे ऐसी निराधार दलीलों का सहारा नहीं लेते.


जर्मनी के बाद राहुल गाँधी को जब लंदन में बोलने का मौका मिला तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर हमला बोल दिया. एक ऐसे संगठन को उन्होंने निशाने पर लिया जिसका देश की सक्रिय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. हाँ, केंद्र में वर्तमान में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का संघ से रिश्ता जगजाहिर है परन्तु राहुल गाँधी को यह ज्ञात होना चाहिए कि केंद्र में नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स (एनडीए) की सरकार है और उसमें कई ऐसे राजनीतिक दल शामिल हैं जिनका संघ की विचारधारा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है. फिर ऐसे में जैसा की राहुल गाँधी आरोप लगा रहे हैं कि संघ सरकारी संस्थानों में घुसपैठ कर रहा है, कहां तक जायज है. क्या राहुल गाँधी संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा और आम जनता में उसकी लोकप्रियता से इतना डर गए हैं कि वे संघ की तुलना दुनिया के कई देशों में प्रतिबंधित इस्लामिक आतंकवादी संगठन 'मुस्लिम ब्रदरहुड' से तुलना कर बैठे. स्पष्ट है, संभवतः राहुल गाँधी को राष्ट्रवाद और आतंकवाद में अंतर करने की क्षमता नहीं है. एक महान चिन्तक बनने से पहले राहुल गाँधी के लिए जरूरी है कि वे पहले संघ का इतिहास और उसकी विचारधारा को पढ़ें और फिर 'मुस्लिम ब्रदरहुड' का इतिहास और उसकी विचारधारा को पढ़ें और उसके बाद दोनों के अंतर से दुनिया को अवगत कराएं.


बहरहाल, इस विदेश यात्रा के दौरान राहुल गाँधी ने देश की वर्तमान मोदी सरकार को नीचा दिखाने के लिए जितने भी प्रपंच रचे उससे स्पष्ट सन्देश जाता है कि वे राजनीतिक मोर्चे पर अपनी असफलता को छिपाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. राजनीतिक हताशा में वे अब कुछ भी बोलने और करने को तैयार हैं. परन्तु क्या राहुल गाँधी को और उनकी पार्टी कांग्रेस को इस बात का थोड़ा भी अहसास है कि वे जो बोल रहे हैं उससे उनकी प्रतिष्ठा की ही भद्द पीट रही है. संभवतः इसका खामियाजा उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव में भुगतना भी पड़ सकता है.