कभी-कभी बौद्धिक क्षेत्र के एक वर्ग की तड़पन क्यों बढ़ जाती है?

एक बार फिर असिहष्णुता के बहाने देश के 49 तथाकथित बुद्धिजीवियों ने तड़पन का इजहार किया है और इस बार बहाना बना है 'जय श्रीराम' का नारा. पिछले पांच सालों में केंद्र सरकार के विरुद्ध अवार्ड वापसी से लेकर अन्य चलाए गए अभियानों की असफलता से खीझे ये बुद्धिजीवी क्या अब अपना वजूद बचाने के लिए ममता बनर्जी की सह पर खोई जमीन प्राप्त करने का अंतिम प्रयास कर रहे हैं?


फोटो : फाइनेंसियलएक्सप्रेस डॉट कॉम


पिछले पांच वर्षों के दौरान 'देश के टुकड़े-टुकड़े गैंग' का समर्थन और 'अवार्ड वापसी' अभियान के बाद देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी एक बार फिर सक्रिय हुए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछले कार्यकाल के दौरान उन्हें बदनाम करने और सत्ता में दोबारा वापसी को रोकने के लिए देश के इस तथाकथित बौद्धिक वर्ग ने अभियानों की झड़ी लगा दी थी. जगजाहिर है कि ऐसे तथाकथितों के अभियान का नतीजा शून्य रहा और एक बार फिर से पिछले चुनाव के मुकाबले अधिक सीटों के साथ नरेंद्र मोदी देश की सत्ता पर काबिज़ हुए. ऐसे में इन तथाकथितों का चिढ़ना स्वाभाविक था और है. इसके अलावा वे अच्छी तरह समझ चुके हैं कि देश के कुछ भागों को छोड़कर उनका वजूद और उनकी वाहियात सोच लगभग पूरे देश में दम तोड़ चुका है. इसलिए वे अब अपनी उस जमीन को बचाने के लिए तड़प रहे हैं जहाँ उनकी सोच के कुछ अंश बचे हुए हैं. उन सबमें भय का पैदा होना स्वाभाविक है क्योंकि उनके उस जमीन और उनकी वाहियात सोच पर विकासवादी और प्रगतिशील सोच ने निर्णायक धावा बोल दिया है.


ऊपर उल्लेखित संकेतों से सब समझ गए होंगे कि हम देश के किस हिस्से की और किस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सोच की चर्चा कर रहे हैं. यही वह जगह है जहाँ  'जय श्रीराम' के नारों पर वहां की सरकार को भविष्य का डर सता रहा है. इस मामले में गौर करने वाली बात है कि इन तथाकथितों में अधिकांश का सम्बन्ध या तो पश्चिम बंगाल से है या वे फिर वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं. शहरी नक्सलवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, कश्मीर की आज़ादी जैसे विनाशकारी कार्यकलापों से इन सभी का वर्षों से सीधा सम्बन्ध रहा है. जब से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए शहरों और महानगरों में छिपे उनके हमदर्दों और उनके बौद्धिक सलाहकारों पर शिकंजा कसना शुरू किया है तबसे ये और अधिक बिलबिला उठे हैं.


तथाकथित इन बुद्धिजीवियों का बिलबिलाना स्वाभाविक है क्योंकि पिछले पांच वर्षों में केंद्र सरकार ने जिस सक्रियता और कड़ाई से नक्सलवाद और आतंकवाद पर करारा प्रहार किया है उससे ये सभी भी बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं. स्पष्ट तौर पर समझें तो माओवादी और देशविरोधी गतिविधियों को जायज ठहराने के लिए और सार्वजनिक तौर पर वकालत करने के लिए ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों की जमात को विदेशी एजेंसियों से भारी-भरकम फंडिंग होती थी. सरकार की कड़ाई से इस प्रकार की फंडिंग पर भी रोक लगी है.


इस संबंध में जहाँ तक सिनेमा से जुड़े तथाकथित बुद्धिजीवियों की बात है तो उनकी बिलबिलाहट की वजह वर्तमान सरकार की पाकिस्तान और उसके नागरिकों पर कसता शिकंजा है. गौरतलब है कि बॉलीवुड में हमेशा से पाकिस्तानी कलाकारों की भारी मौजूदगी और दखलंदाजी रही है. इस दखलंदाजी की आड़ में बॉलीवुड हवाला कारोबार का एक बड़ा बाज़ार बन चुका था. इसके अलावा डॉन और माफिया तत्व भी अपनी अवैध कमाई का एक बड़ा हिस्सा फिल्म निर्माण में लगाया करते थे. डॉन और माफिया तत्वों के एक बड़े भाग का सीधा संबंध पाकिस्तान से था और वे ऐयाशी के लिए बॉलीवुड को अपना अड्डा बनाए हुए थे. फिल्मों में पैसा लगाने की शर्त पर ये डॉन तीसरे दर्जे के पाकिस्तानी कलाकारों की भी घुसपैठ बॉलीवुड में कराते रहे हैं.


अब जब सरकार की कड़ी नीति की वजह से बॉलीवुड में अवैध फंडिंग पर लगाम लगा है तो वे कलाकार, निर्माता और निर्देशक बिलबिला उठे हैं जिनकी रोजी-रोटी ही उन अवैध फंडिंग पर चल रही थी. अगर हम 49 की उस लिस्ट पर गौर करें तो स्पष्ट पहचान सकते हैं कि ये सभी कितने प्रोफेशनल हैं और इनके फिल्मों का रिकॉर्ड क्या रहा है.


अब 49 की लिस्ट में शामिल उस इतिहासकार की बात करते हैं जो शाकाहारी होने का दावा करने के बावजूद मोदी सरकार पर खीझ उतारने के लिए दिन के उजाले में बीफ़ खाने लगते हैं और उसे सोशल मीडिया पर प्रचारित भी करते हैं. इनकी खीझ की भी वजह है. ये साहब इतिहास के पन्नों को अपनी जागीर समझते हैं. इनके शोध में भारत का कोई प्राचीन इतिहास ही नहीं रहा है. इनके हिसाब से भारत के इतिहास की शुरुआत यहाँ पर मुसलमानों के आक्रमण से शुरू होती है और मुग़लों का काल भारत का स्वर्ण काल रहा है. पश्चिमी देशों के टट्टू ये इतिहासकार अभी तक इतिहास के पन्नों के मठाधीश बने हुए थे और छात्रों को आधारहीन और झूठे इतिहास का ज्ञान पडोसने में लगे हुए थे. अब जब केंद्र की वर्तमान सरकार ने इतिहास की किताबों को पुन:परीक्षण और पुनःलेखन पर कदम बढ़ा दिया है तो इनके पैर तले की जमीन खिसकने लगी है. इन सबकी यही बिलबिलाहट असिहष्णुता के बहाने अब सड़क पर आ गई है.


अब सवाल यह उठता है कि क्या वजह है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के सत्ता संभालते ही ये एक बार फिर बिल से निकल आए हैं और वो भी 'जय श्रीराम' के नारे के बहाने. इसकी वजह भी समझने में देश के जागरूक नागरिकों को परेशानी नहीं होनी चाहिए. इस संबंध में गौर करने वाली बात है कि जैसे ही 49 के चिट्ठी की खबर मीडिया में आई वैसे ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आनन-फानन में इसके समर्थन में बयान जारी कर दिया. इसके अलावा शायद ही किसी ने 49 की चिठ्ठी का समर्थन किया है.


ममता बनर्जी के उताबलेपन से स्पष्ट है कि इस बार 49 के अभियान को प्रायोजित ममता बनर्जी ने किया है. इस कयास को बल पूरे बंगाल में गूँज रहे 'जय श्रीराम' के उद्दघोष से भी मिलता है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस अभियान की सूत्रधार बंगाली अभिनेत्री अपर्णा सेन हैं जो ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की नेता भी हैं. भ्रामक आंकड़ों और तथ्यों से भरपूर इस चिठ्ठी में 49 के समूह ने 'जय श्रीराम' के बहाने 'मॉब लिंचिंग' को आधार बनाकर मोदी सरकार पर हमला बोला है. जाहिर है कि इस अभियान की आड़ में ममता बनर्जी बंगाल में अपनी खोती जमीन को वापस पाने की कोशिश कर रही है.


केवल ममता बनर्जी ही नहीं, 49 में शामिल ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी भी अपनी जमीन को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं जो अपनी प्रासंगिकता अपनी करतूतों के कारण खोते जा रहे हैं.