गलत निशाना क्यों लगा रही हैं प्रियंका वाड्रा?

भारतीय राजनीति के हाशिए पर पहुँच चुकी कांग्रेस अब अपना वजूद बचाने के लिए तिनके का सहारा तलाश रही है. इसी तलाश में उसे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में जमीन पर कब्जे के लिए की गई 10 लोगों की हत्या में राजनीतिक उम्मीद दिख रही है. कांग्रेस ने इस हत्याकांड का राजनीतिक लाभ लेने की जिम्मेदारी प्रियंका वाड्रा को सौंपी है. डूबते में तिनके का सहारा समझ प्रियंका वाड्रा अभी अपने सोनभद्र अभियान पर हैं और वाराणसी में राज्य की योगी सरकार के प्रशासन से जूझ रही हैं. अब सवाल यह उठता है कि क्या एक राष्ट्रीय स्तर के नेता की छवि रखने वाली प्रियंका वाड्रा का एक ऐसे मुद्दे पर राजनीति करना कहाँ तक उचित है जिसमें वर्तमान राज्य सरकार की दूर-दूर तक कोई संलिप्तता नहीं है. तो क्या प्रियंका वाड्रा भी अपने भाई राहुल गाँधी की तरह गलत राजनीतिक निशाना लगा रही हैं?



प्रियंका वाड्रा जोश में सोनभद्र में हत्याकांड के पीड़ित परिवारों से मिलने के लिए दल-बल के साथ वाराणसी तो पहुँच गईं परन्तु योगी प्रशासन ने उन्हें सोनभद्र नहीं जाने दिया. आख़िरकार वह पीड़ित परिवार से चुनार के गेस्टहाउस में मिली. गेस्टहाउस में धरने पर बैठने और तमाम कोशिशों के बाद भी सोनभद्र में घटनास्थल पर पहुँचने में नाकामयाब रही. हालाँकि कांग्रेस ने प्रियंका वाड्रा की इस यात्रा को और हत्याकांड को एक बड़ा राजनीतिक रंग देने का हरसंभव प्रयास किया परन्तु वे नाकामयाब रहे.


खबर यह भी है कि कांग्रेस ने सोशल मीडिया पर  प्रियंका वाड्रा की इस यात्रा को वर्ष 1977 में इंदिरा गाँधी के बिहार की बेलची गाँव की यात्रा से जोड़कर प्रचारित करने और फिर एक राजनीतिक तूफान खड़ा करने की एक लंबी योजना तैयार की थी. परन्तु तमाम कोशिशों के वाबजूद कांग्रेस इस योजना में सफल नहीं हो सकी. यहाँ यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि आखिर 1977 में इंदिरा गाँधी ने क्या किया था जिसमें वर्तमान इंदिरा गाँधी यानि प्रियंका वाड्रा सफल नहीं हो सकी. गौरतलब है कि वर्ष 1977 में जब इंदिरा गाँधी सत्ता से बाहर थी तब बिहार के नालंदा जिले के बेलची गाँव में 11 दलितों की हत्या दबंगों ने कर दी थी. उस समय वह इलाका बाढ़ से प्रभावित था और बेलची गाँव में आसानी से पहुंचना नामुमकिन था. ऐसी विषम परिस्थिति में भी इंदिरा गाँधी ने उस हत्याकांड का राजनीतिक लाभ लेने के लिए बेलची का दौरा करने और पीड़ित परिवारों से मिलने का फैसला किया और बेलची के लिए निकल पड़ीं.


उस घटना के संबंध में कहा जाता है कि बेलची में पहुँचने के लिए रास्ता न होने की जानकारी के वाबजूद इंदिरा गाँधी ने दृढ इच्छाशक्ति दर्शाते हुए रातभर पैदल चलकर वहां पहुँचने का प्रण किया था. जब वह बेलची जाने के लिए जीप में निकली तो थोड़ी दूर जाने के बाद जीप कीचड़ में धंस गई. इसके बाद वह ट्रैक्टर में बैठकर आगे चलीं. ट्रैक्टर भी कीचड़ भरे रास्ते पर ज्यादा दूर तक नहीं चल पाया तो हाथी का इंतज़ाम किया गया. तब कहीं जाकर इंदिरा गाँधी हत्याकांड के पीड़ित परिवारों तक पहुँच सकी. उस समय इंदिरा गाँधी के इस कदम और उनकी दृढ इच्छाशक्ति की खूब चर्चा हुई थी और इसका उन्हें राजनीतिक लाभ भी मिला था. इसके बाद 1980 में उनकी सत्ता में वापसी भी हुई.


कुछ उसी तरह का ड्रामा इस बार भी कांग्रेस ने प्रियंका वाड्रा के लिए प्लांट किया था. कांग्रेस को शायद लगा कि वह इस मुद्दे को योगी सरकार की विफलता के रूप में प्रचारित कर राजनीतिक बढ़त बनाने में कामयाब हो जायेंगे. परन्तु ऐसा विशेष कुछ नहीं हो सका. चुनार के गेस्टहाउस में धरने पर बैठने के वाबजूद केवल कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ता वहां नज़र आए. आम जनता इस मुद्दे पर लगभग उदासीन ही रही. घटना वाले गाँव से केवल 15 लोग प्रियंका वाड्रा से मिलने गेस्टहाउस पहुंचे. उनमें से भी केवल दो लोगों को प्रियंका वाड्रा से मिलने दिया गया. यहाँ कांग्रेस के कई बड़े नेता और दूसरे कांग्रेस शासित राज्य के मुख्यमंत्री भी पहुंचे परन्तु वे भी आम जनता में उत्साह का संचार नहीं कर पाए.


धरने पर बैठी प्रियंका वाड्रा की बेबसी उनकी प्रेस से की गई अपील से आसानी से समझी जा सकती है जिसमें वह पीड़ित परिवार के लोगों से मिलने देने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के मीडिया के लोगों से कह रही हैं. इसके उलट प्रशासन टस से मस होने को तैयार नहीं है. अब पूरे मामले का लाबोलुआब यही है कि प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस जो चाहती थी वह नहीं हो सका और राजनीति का यह तिनका भी उसे किनारे लगाने में असफल रहा.


प्रियंका वाड्रा के इस बचकाना कदम पर सवाल और भी उठेंगे. क्या प्रियंका का सोनभद्र जाना जरूरी था? अगर जरूरी था या राजनीतिक मजबूरी थी तो पूर्व तैयारियों के तहत राज्य सरकार पर पहले से दबाव क्यों नहीं बनाया गया? प्रियंका का यह कदम ठीक वैसा ही है जैसे राहुल गाँधी ने बिना किसी सबूत के राफेल का मुद्दा उठाया था या फिर वे देशद्रोही छात्रों के समर्थन में बिना मौके की नाजुकता को समझते हुए जेएनयू चले गए थे.


सोनभद्र की घटना भी कोई अचानक घटित नहीं हुई है. यह कोई पूरी तरह से कानून व्यवस्था से जुड़ा मुद्दा भी नहीं है. घटना की नीब तो वर्ष 1955 में ही पड़ चुकी थी जब देश में कांग्रेस की एकछत्र सरकार थी. भ्रष्टाचार के आकंठ तक डूबे इस मुद्दे की सूत्रधार कांग्रेस की सरकार ही रही है जिसने आदिवासियों की जमीन को नियम-कानून को ताक पर रखते हुए एक प्रभावशाली नौकरशाह की संस्था को सौंप दिया था. बाद में उस नौकरशाह ने एक और भ्रष्टाचार करते हुए उस जमीन को उस इलाके के एक दबंग के हाथों बेच दिया. वास्तविक तौर पर इस हत्याकांड के दोषी तो कांग्रेस के वो सभी नेता हैं जिन्होंने उस दौरान मिलीभगत करके उस जमीन का वारा-न्यारा किया था. संभवतः वर्तमान सरकार अब पूरे मामले की जांच करेगी जिससे उस दौर में हुए इस भ्रष्टाचार के साथ-साथ अन्यों का भी खुलासा हो सकेगा.


अब मृतप्राय हो चुके कांग्रेस में जान फूंकने और कार्यकर्ताओं में जोश फूंकने की जल्दबाजी में प्रियंका वाड्रा से ऐसी गलती हो गई है तो यह उनकी नहीं बल्कि उनकी राजनीतिक सोच-समझ और परिपक्वता की कमी के कारण हुई है. इस कमी को उन्हें और कांग्रेस को समझनी होगी.